२०१२ के गुजरात विधानसभा चुनावों की तैयारी के दौरान जिस
समय नरेंद्र मोदी सदभावना यात्रा और उपवास के मिशन पर गुजरात भर में घूमने निकले
थे, उस समय एक अप्रत्याशित घटना घटी थी. एक कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी का स्वागत
करते हुए एक मौलवी ने उन्हें मुसलमानों की सफ़ेद जाली वाली टोपी पहनाने का उपक्रम
किया था, जिसे नरेंद्र मोदी ने विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया था. इस बात को भारत के
पक्षपाती (यानी तथाकथित सेकुलर) मीडिया ने लपक लिया और मोदी के इस व्यवहार(?) को
लेकर हमेशा की तरह मोदी पर हमले आरम्भ कर दिए थे. उसी दिन शाम को एक कम पढ़ी-लिखी
महिला से मेरी बातचीत हुई और मैंने उससे पूछ लिया कि नरेंद्र मोदी ने उस मौलवी की “टोपी” नहीं
पहनकर कोई गलती की है क्या? उस महिला का जवाब था नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी ने
गुजरात विधानसभा का आधा चुनाव तो सिर्फ इसी बात से जीत लिया है. साफ़ बात है कि
जो बात एयरकंडीशन कमरों में बैठे बुद्धिजीवी नहीं समझ पाते, वह बात एक सामान्य
महिला की समझ में आ रही थी कि यदि नरेंद्र मोदी भी दिल्ली-मुंबई-पटना में बैठे हुए
सेकुलर नेताओं की तरह “मुल्ला टोपी” पहनकर इतराने का भौंडा प्रयास करते तो उनके वोट और भी कम
हो जाते, वैसा न करके उन्होंने अपने वोटों को बढ़ाया ही था. परन्तु जो “बुद्धिजीवी”(?) वर्ग
होता है वह अक्सर नरेन्द्र मोदी को बिन मांगे सेकुलर सलाह देता है, क्योंकि उसे
पता ही नहीं होता कि जमीनी हकीकत क्या है.
इस प्रस्तावना का मोटा अर्थ यह है कि यदि विकास सही तरीके
से किया जाए, जनता के कामों को पूरा किया जाए, लोगों की तकलीफें कम होती हों,
उन्हें अपने आर्थिक बढ़त के रास्ते दिखाई देते हों और राज्य की बेहतरी के लिए सही
तरीके से आगे बढ़ा जाए, तो जनता को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि आप “हिन्दुत्ववादी” हैं या
“मुल्लावादी”. नरेन्द्र
मोदी और देश के बाकी मुख्यमंत्रियों में यही एक प्रमुख अंतर है कि नरेन्द्र मोदी
अपनी “छवि” (जो कि
उन पर थोपी गई है) की परवाह किए बिना, चुपचाप अपना काम करते जाते हैं, मीडिया के “वाचाल
टट्टुओं” को
बिना मुँह लगाए, क्योंकि उन्हें यह स्पष्ट रूप से पता है कि मीडिया नरेन्द्र मोदी
के विपक्ष में जितना अधिक चीखेगा उसका उतना ही फायदा उन्हें होगा. मीडिया जब-जब
मोदी के खिलाफ जहर उगलता है, मोदी को लाभ ही होता है. नरेन्द्र मोदी का इंटरव्यू
लेने पर सपा के शाहिद सिद्दीकी की पार्टी से बर्खास्तगी हो, या मोदी की तारीफ़ करने
पर मुस्लिम बुद्धिजीवी मौलाना वस्तानावी के साथ जैसा “सलूक”
सेकुलरों ने किया, उसका अच्छा सन्देश ही हिंदुओं में गया. लोगों को यह महसूस हुआ
कि जिस तरह से नरेन्द्र मोदी के साथ “अछूतों” की तरह व्यवहार किया जाता है, वह मीडिया और विपक्षियों की
घटिया चालबाजी है.
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने द्वारा किए गए विकास को कई
बार साबित किया है। आश्चर्य तो यह है कि उनके इस विकासवादी एजेंडा पर महबूबा
मुफ्ती, अमरिंदर सिंह, गुजरात कांग्रेस और शीला दीक्षित भी मुहर लगा रही
हैं। यहाँ पर यह याद रखना जरूरी है कि उन पर लगाए गए दंगों के आरोप अभी तक किसी
अदालत में साबित होना तो दूर, उन पर अभी तक कोई FIR भी नहीं है, जबकि नरेन्द्र मोदी को घेरने की
पूरी कोशिशें की जा चुकी हैं. NGOवादी “परजीवी गैंग” ने भी मोर्चा खोला हुआ है, केंद्र की तरफ से
तमाम एसआईटी और सीबीआई तथा गुजरात के सभी मामलों की सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वयं
निगरानी... इन सबके बावजूद नरेन्द्र मोदी यदि डटे हुए हैं, तो यह उनके विकास
कार्यों और हिन्दुत्ववादी छवि के कारण.
पार्टी हो या पार्टी से बाहर... किसी भी व्यक्ति या संस्था को मोदी से निपटने का कोई कारगर रास्ता नहीं सूझ रहा है, उन्होंने अपनी पार्टी और पार्टी से बाहर विरोधियों से निपटने के लिए गुजरात-मोदी-विकास-हिंदुत्व का एक चौखट बना लिया है, जिसे तोड़ना लगभग असंभव होता जा रहा है, तभी तो महबूबा मुफ्ती जैसी नेता को भी मोदी की तारीफ करनी पड़ती है। चेन्नै के एक मुस्लिम व्यापारी की फाइल को सबसे तेजी से कुछ घंटों में सरकारी महकमों से निपटाकर वापस करने के लिए। क्या देश के तथाकथित सेक्युलर मुख्यमंत्रियों को ऐसा काम करने से कोई रोकता है? भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार 2007 में गुजरात के मुसलमानों की प्रति व्यक्ति आय (पीसीआई) देश में सबसे ज्यादा थी। देश के अन्य “सेकुलर”(?) राज्यों में भी ऐसा किया जा सकता था लेकिन नहीं किया गया, क्योंकि अव्वल तो उन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को “हिंदुत्व” शब्द से ही घृणा है और दूसरा यह कि उन्हें सेकुलरिज्म का एक ही अर्थ मालूम है कि “जैसे भी हो मुसलमानों को खुश करो”. जबकि नरेन्द्र मोदी का हिंदुत्व एकदम उलट है, कि “विकास सभी का करो लेकिन तुष्टिकरण किसी का भी न करो”. इसीलिये जब अहमदाबाद की विश्व प्रसिद्द बीआरटीएस (रोड ट्रांसपोर्ट योजना) के निर्माण की राह में जो भी मंदिर-मस्जिद या दरगाह आईं, नरेन्द्र मोदी ने बगैर पक्षपात के उन्हें तुडवा दिया और अहमदाबाद को विश्व के नक़्शे पर एक नई पहचान दी. आज अहमदाबाद के BRTS की तर्ज पर कई शहरों में “विशेष ट्रांसपोर्ट गलियारों” का निर्माण हो रहा है. मजे की बात यह है कि इस दौरान मंदिरों को गिराने या विस्थापित करने का किसी भी हिन्दू संगठन ने कोई विरोध नहीं किया, स्वाभाविक है कि मस्जिद या दरगाह को तोड़ने का विरोध भी होने की संभावना खत्म हो गई... यही है हिंदुत्व और विकास, जिसे “सेकुलर” लोग कभी नहीं समझ सकेंगे क्योंकि उनकी आँखों पर “मुस्लिम तुष्टिकरण” की पट्टी चढ़ी होती है.
दरअसल, संघ ने २०१४ के महाभारत के लिए एक दोधारी
तलवार चुनी है। एक धार
विकास की, दूसरी
धार हिंदू राष्ट्र की। मोदीत्व और हिंदुत्व को मिलाकर जो आयुर्वेदिक दवाई बनी है,
वह फिलहाल अब तक लाजवाब साबित हो रही है. इस मोदीत्व में कई
बातें शामिल हैं। 'विकास' और 'सुशासन' का एक मोदी फॉर्मूला तो है ही, और भी बहुत कुछ है। जैसे कि धुन का पक्का
एक कद्दावर नेता, जो अपने समर्थकों के
बीच “दबंग” छवि वाला है,
राजधर्म की दुहाई देनेवाले अटल बिहारी वाजपेयी हों या बात-बात पर देश की अदालतों
की फटकार हो, यह व्यक्ति चुटकियों
में दो-टूक फैसले लेता है और आनन-फानन में उन्हें लागू भी कर देता है, यह इंसान हाज़िर-जवाब है जो मीडिया के
महारथियों(?) को उन्हीं की भाषा में जवाब देता है, जिसने “गुजराती अस्मिता', “मेरा गुजरात”, “छः करोड़ गुजराती” इत्यादि शब्दों को
सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है, समर्थकों को भरोसा है कि यह हमेशा हिंदुत्व की
रक्षा करेगा। इन तमाम तत्वों से मिलकर बनता है मोदीत्व. यानी हिंदुत्व और विकास का
कॉकटेल| कुम्भ मेले के
दौरान साधू-संतों और अखाड़ों द्वारा लगातार मोदी-मोदी-मोदी की मांग करना और ऐन उसी
वक्त मोदी द्वारा दिल्ली के श्रीराम कालेज में युवाओं को संबोधित करना महज संयोग
नहीं है, यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत हुआ है, अर्थात परम्परागत
वोटरों को “हिंदुत्व” से और युवा शक्ति
को “विकास और आर्थिक
समृद्धि” के उदाहरणों के
सहारे वोट बैंक में तब्दील किया जा सके. सीधी सी बात है कि “हिंदुत्व और विकास” की इस जोड़-धुरी के
प्रमुख नायक हैं नरेन्द्र मोदी.
भाजपा की इस कॉकटेल
के सबसे बड़े प्रतीक मोदी हैं। गुजरात दंगों की वजह से मोदी की छवि आज वैसी ही है
जैसी कि राम मंदिर आंदोलन के दौरान आडवाणी की थी। राम मंदिर आंदोलन ने आडवाणी को
हिंदू ह्रदय सम्राट बना दिया था। लेकिन “विकास” कभी भी आडवाणी के
साथ नहीं चिपक पाया। गृह मंत्री के तौर पर भी उनका कार्यकाल प्रेरणादायी नहीं था,
बल्कि कंधार प्रकरण की वजह से उनकी किरकिरी ही हुई थी. आडवाणी को अटल बिहारी
वाजपेयी की परछाई के नीचे काम करना पड़ा ऐसे में अच्छे शासन का श्रेय तो वाजपेयी
को मिला प्रधानमंत्री के रूप में, लेकिन आड़वाणी को नहीं। नरेन्द्र मोदी के साथ ये
दिक्कत नहीं है। मोदी ने भाजपा के लिये लगातार तीन चुनाव जीते हैं। पहला चुनाव
निश्चित रूप से उन्होंने सांप्रदायिकता के मुद्दे पर लड़ा और जीत हासिल की,
हालांकि यह मुद्दा भी मीडिया और कांग्रेस द्वारा बारम्बार “हिटलर” और “मौत का सौदागर” जैसे शब्दों की वजह
से प्रमुख बना। लेकिन गुजरात विधानसभा के दूसरे चुनावों में “विकास” उनके एजेंडे पर
प्रमुख हो गया। गुजरात दंगों की छवि उनके साथ खामख्वाह चिपकी जरूर रही लेकिन
उन्होंने उस पर बात करना ही बंद कर दिया, और अब तीसरा चुनाव जीतते ही नरेन्द्र
मोदी भाजपा में निर्विवाद नेता हो गये हैं। सबसे बड़े जनाधार वाले नेता और एक ऐसा
नेता जो फैसले लेने से डिगता नहीं है। नरेन्द्र मोदी अब धीरे-धीरे भाजपा की
अपरिहार्य आवश्यकता बनते जा रहे हैं। ये लगभग तय है कि बीजेपी अगला चुनाव उनकी ही
अगुआई में लड़ेगी। पार्टी की कमान राजनाथ सिंह संभालेंगे और देश भर में लहर पैदा
करने की जिम्मेदारी मोदी की होगी।
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद मुंबई की रैली से जिस
तरह लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज जैसे राष्ट्रीय नेता छोटे-छोटे और नाकाफी
कारणों से गैरहाजिर रहे और मंच पर नरेंद्र मोदी का एकछत्र दबदबा दिखा,
उससे साफ
है कि भाजपा में मोदी युग की शुरुआत हो चुकी है। मोदी भी कल्याण
सिंह, उमा भारती और
येदियुरप्पा की तरह “स्वतंत्र स्वभाव के पिछडे वर्ग के” नेता हैं। यह बात
जाहिर है कि अटल बिहारी वाजपेयी 2002 के दंगों के बाद उन्हें हटाना चाहते थे लेकिन कार्यकर्ताओं और जनता के
दबाव की वजह से नहीं हटा पाए। २०१२ की तीसरी विधानसभा जीत में जिस तरह से गुजरात
के मुसलमानों ने मोदी के नाम पर वोट दिया है, वह सेकुलर पार्टियों, खासकर मुस्लिमों
को वोट बैंक समझने वाली कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है. हाल ही में एक नगरपालिका
चुनाव में सभी की सभी सीटें भाजपा ने जीतीं, जबकि वहाँ कि जनसंख्या में ७२%
मुसलमान हैं, नरेन्द्र मोदी की यही बात विपक्षियों की नींद उडाए हुए है.
नरेन्द्र मोदी ने
जिस तरह कुशलता से “हिंदुत्व और विकास” का ताना-बाना बुना
और लागू किया है, वह भाजपा के अन्य मुख्यमंत्रियों के लिए भी सबक है. यदि उन्हें
सत्ता में टिके रहना है तो यह फार्मूला कारगर है, दुर्भाग्य से मध्यप्रदेश के
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने धार की भोजशाला मामले में “सेकुलर” रुख अपनाकर अपनी ही
पार्टी के कार्यकर्ताओं की नाराजगी मोल ले ली है. जबकि इसके उलट नरेन्द्र मोदी ने
केंद्र की और से अल्पसंख्यकों के लिए भेजी जाने वाली छात्रवृत्ति का वितरण करने से
इस आधार पर मना कर दिया कि छात्रों के साथ धार्मिक भेदभाव करना उचित नहीं है.
फिलहाल यह मामला केन्द्र-राज्य के बीच झूल रहा है, लेकिन नरेन्द्र मोदी को अपने
समर्थकों और वोटरों को जो सन्देश देना था, वह पहुँच गया. इसके बावजूद, गुजरात के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति में भरपूर
सुधार हुआ है तथा अन्य राज्यों (विशेषकर पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश) के मुकाबले
गुजरात में मुसलमानों की सामाजिक स्थिति काफी सुधरी हुई है.